Tuesday, December 9, 2014

मंज़िल..

मैं बेगाना राहीं, एक रास्ता खोजता हूँ..
इस वीरान रेगिस्तान में एक नख़लिस्तान ढूंढता हूँ..

ए प्यास बुझाने वाले, तेरी राह देखता हूँ..
अंजानी सी इस दुनिया में अपनी मंज़िल चाहता हूँ..

उस सन्नाटे में किसी की आवाज़ खोजता हूँ..
अपने ही साँसों की गहराइयों में तेरी आहट ढूंढ़ता हूँ..

हर गीत-संगीत में तेरी रूह देखता हूँ..
अंजानी सी इस दुनिया में अपनी मंज़िल चाहता हूँ..

उस पायल की छम-छम में, तेरी हंसी की सरगम खोजता हूँ..
हर घम को भूलने की वह दवा ढूंढ़ता हूँ..

उन शर्मीली निग़ाहों में अपने आपको देखता हूँ..
अंजानी सी इस दुनिया में अपनी मंज़िल चाहता हूँ.. 

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